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Class 12 Micro Economics Chapter 7-Law of Production-Returns to a Factor

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  • MicroEconomics
by Eco_Admin - 16/05/202017/05/20210

Law of Production-Returns to a Factor

Class 12 Micro Economics Chapter 7-Law of Production-Returns to a Factor
In this post of Economics Online Class, we will learn about Law of Production-Returns to a Factor

We continuously providing your all Economics Notes about Micro Economics, Macro Economics and Syllabus information for CBSE Class 12th and Haryana Board Class 12th and 11th. These Economics Notes in Hindi language.

Class XII Economics Notes

Law of production, economics online class
Law of production
उत्पादन के नियम कारक के प्रतिफल

Law of Production-Returns to a Factor

 
हम जानते हैं कि उत्पादन फलन उत्पादन के साधनों और उत्पादन की मात्रा में भौतिक संबंध को दर्शाता है। अल्प-काल में उत्पादन को बढ़ाने के लिए केवल परिवर्तनशील साधनों के अधिक प्रयोग पर निर्भर किया जा सकता है जबकि दीर्घकाल में सभी कारकों की मात्रा को घटाया-बढ़ाया जा सकता है। अर्थशास्त्रियों ने अपने अध्ययन से यह जाना कि अल्पकाल में जब भी हम उत्पादन बढ़ाने के लिए किसी एक परिवर्तनशील कारक का प्रयोग करते हैं तो उत्पादन में वृद्धि एक नियम के अनुसार होने लगती है। इसी तरह दीर्घकाल में भी जब सभी कारकों का प्रयोग एक निश्चित अनुपात में बढ़ाया जाता है तो उत्पादन में वृद्धि एक नियम के अनुसार होने लगती है। उत्पादन में नियमानुसार वृद्धि की प्रवृत्ति को ही उत्पादन के नियम कहा जाता है। अल्पकाल से संबंधित उत्पादन नियमों को कारक के प्रतिफल (Returns to a Factor) कहा जाता है जबकि दीर्घकाल से संबंधित उत्पादन नियमों को पैमाने के प्रतिफल (Returns to Scale)  कहा जाता है।
 
कारक के प्रतिफल तथा पैमाने के प्रतिफल में आधारभूत अंतर

Differences between returns to a factor and returns to scale

यदि एक उत्पादक उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन करना चाहता है तो वह यह परिवर्तन एक या एक से अधिक या सभी उत्पादन के कारकों में परिवर्तन करके कर सकता है। यदि उत्पादक उत्पादन में परिवर्तन अन्य कारकों को स्थिर रखकर उत्पादन के केवल एक ही कारक में वृद्धि अथवा कमी द्वारा करता है और इसके फलस्वरूप उत्पादन के कारकों के मिश्रण का अनुपात बदलता है तो उत्पादन और उत्पादन के कारकों के इस आनुपातिक संबंध को कारक के प्रतिफल कहा जाता है। इसके विपरीत यदि उत्पादक सभी कारकों में एक अनुपात में परिवर्तन करता है। अर्थात उत्पादन के कारकों के मिश्रण का अनुपात समान रहता है तो इस स्थिति में उत्पादन और उत्पादन के कारकों के अनुपातिक संबंध को पैमाने के प्रतिफल कहा जाता है।
 
उत्पादन के दो नियम है A) कारक के प्रतिफल और B) पैमाने के प्रतिफल।
 
कारक के प्रतिफल तथा पैमाने के प्रतिफल में पांच आधारभूत अंतर होते हैं जो के निम्नलिखित हैं।
 
1- उत्पादन फलन का प्रकार-
कारक के प्रतिफल की यह मान्यता है कि कारकों का अनुपात परिवर्तनशील होता है। इसके विपरीत पैमाने के प्रतिफल की यह मान्यता है कि कारकों का अनुपात स्थिर रहता है।
2- परिवर्तनशील कारकों की संख्या-
कारक के प्रतिफल उस समय लागू होते हैं जब केवल एक कारक परिवर्तनशील होता है तथा बाकी स्थिर रहते हैं। इसके विपरीत पैमाने का प्रतिफल उस समय लागू होता है जब उत्पादन के सभी कारक परिवर्तनशील होते हैं।
3-उत्पादन का पैमाना-
कारक के प्रतिफल इस मान्यता पर आधारित है कि उत्पादन के पैमाने में कोई परिवर्तन नहीं होता। इसके विपरीत पैमाने के प्रतिफल इस मान्यता पर आधारित हैं कि उत्पादन के पैमाने में परिवर्तन अवश्य होता है।
4-कारक अनुपात- कारक प्रतिफल का नियम इस मान्यता पर आधारित है कि उत्पादन के विभिन्न कारकों के मध्य अनुपात परिवर्तन होता है। अर्थात उत्पादन के विभिन्न साधनों का अनुपात बदलता है। इसके विपरीत पैमाने का प्रतिफल का अध्ययन इस मान्यता पर किया जाता है कि कारक अनुपात स्थिर रहता है।
5-समय अवधि- कारक के प्रतिफल का अध्ययन सामान्यत: अल्पकाल में किया जाता है जबकि पैमाने के प्रतिफल केवल दीर्घकाल में ही संभव है।
A) साधन या कारक के प्रतिफल

Returns to a Factor

 
जब उत्पादन के एक साधन को घटाने या बढ़ाने बढ़ाने तथा अन्य कारकों को स्थिर रखने पर उत्पादन की मात्रा में जो परिवर्तन आता है उसे साधन या कारक के प्रतिफल कहते हैं। उदाहरण के लिए अल्पकाल में भूमि की मात्रा स्थिर होती है। हम केवल श्रम की इकाइयों में कमि या वृद्धि करके उत्पादन को परिवर्तित कर सकते हैं। अतः इसे साधन या कारक के प्रतिफल कहा जाएगा।
कारक के प्रतिफल की व्याख्या निम्न ढंग से की जा सकती है।
i) कारक के बढ़ते प्रतिफल
ii) कारक के समान प्रतिफल
iii) कारक के घटते प्रतिफल या ह्रासमान प्रतिफल।
i) कारक के बढ़ते प्रतिफल

Increasing Returns to a Factor

 
कारक के बढ़ते प्रतिफल वह स्थिति है जिसमें कुल उत्पादन बढ़ती हुई दर पर बढ़ता है जबकि स्थिर कारक की एक निश्चित इकाई के साथ परिवर्तनशील कारक की अधिक इकाइयों का प्रयोग किया जाता है। इस स्थिति में परिवर्तनशील कारक का सीमांत उत्पाद बढ़ता जाता है। अन्य शब्दों में उत्पादन की सीमांत लागत कम होती जाती है।
बेन्हम के शब्दों में, “जब कारकों के संयोग में एक कारक के अनुपात को बढ़ाया जाता है तब एक सीमा तक उस कारक की सीमांत उत्पादकता में वृद्धि होगी।”
व्याख्या
कारक के बढ़ते प्रतिफल को निम्न तालिका और रेखा चित्र द्वारा समझाया जा सकता है।
भूमि की इकाइयाँ
श्रम की इकाइयाँ
कुल उत्पाद
सीमांत उत्पाद
1
1
4
4
1
2
10
10-4=6
1
3
18
18-10=8
1
4
28
28-18=10
1
5
40
40-28=12
तालिका से ज्ञात होता है कि जब भूमि के स्थिर मात्रा के साथ श्रम की अधिक इकाईयों का प्रयोग किया जा रहा है तो कुल उत्पाद बढ़ती हुई दर पर बढ़ता है। परिवर्तनशील कारक का सीमांत उत्पाद भी बढ़ रहा है।
 
 
Increasing Returns to a Factor
रेखाचित्र के अध्ययन से ज्ञात होता है कि कुल उत्पादन बढ़ती हुई दर पर बढ़ रहा है। साथ ही परिवर्तनशील कारक का सीमांत उत्पाद भी बढ़ता जा रहा है। यह स्थिति प्रकार साधन/कारक के बढ़ते प्रतिफल को दर्शाती है।
कारक के बढ़ते प्रतिफल के कारण

Causes of Increasing Returns to a Factor

 
1-स्थिर कारक का पूर्ण प्रयोग-
उत्पादन की प्रारंभिक अवस्था में उत्पादन के साधन जैसे भूमि, मशीन का पूर्ण उपयोग नहीं होता है। उसके पूर्ण उपयोग के लिए परिवर्तनशील कारक जैसे श्रम की अधिक इकाइयों की आवश्यकता होती है। इसलिए आरंभिक अवस्था में परिवर्तन के कारक के अतिरिक्त इकाइयों का प्रयोग करने से कुल उत्पादन में वृद्धि होती है। और उत्पादक को कारक के बढ़ते प्रतिफल प्राप्त होते हैं।
 
2-परिवर्तनशील कारक की कुशलता में वृद्धि-
परिवर्तनशील कारक जैसे श्रम की अतिरिक्त इकाइयों का प्रयोग करने से प्रक्रिया आधारित श्रम विभाजन संभव हो जाता है। इसके फलस्वरूप उसकी कार्य-कुशलता में वृद्धि होती है और सीमांत उत्पादकता की बढ़ जाती है।
 
3-कारकों में उचित समन्वय-
उत्पादन के स्थिर कारक के साथ परिवर्तनशील कारक की अतिरिक्त इकाइयों का प्रयोग करने से स्थिर तथा परिवर्तनशील कारक के समन्वय में वृद्धि होती है। इसके उत्पादन में बढ़ती हुई दर से वृद्धि होती है।
ii) कारक के समान प्रतिफल

Constant Returns to a Factor

 
कारक के समान प्रतिफल से अभिप्राय उस स्थिति से है जिसमें परिवर्तनशील कारक की अतिरिक्त इकाइयों का प्रयोग करने से उनके सीमांत उत्पादकता में वृद्धि नहीं होती। इस स्थिति में सीमांत उत्पाद स्थिर हो जाता है। इसके फलस्वरूप कुल उत्पादन में वृद्धि समान दर से होती है। अन्य शब्दों में उत्पादन समान लागत पर होता है।
हेन्सन के शब्दों में, “कारक के समान प्रतिफल के नियम के अनुसार कारक के समान प्रतिफल उस समय प्राप्त होते हैं जब परिवर्तनशील कारक की अतिरिक्त इकाइयों का प्रयोग करने से उत्पादन में समान दर से वृद्धि होती है।”
 
 
व्याख्या
कारक के समान प्रतिफल की व्याख्या निम्न तालिका और रेखा चित्र की सहायता से की जा सकती है-
भूमि की इकाइयाँ
श्रम की इकाइयाँ
कुल उत्पाद
सीमांत उत्पाद
1
1
5
5
1
2
10
10-5=5
1
3
15
15-10=5
1
4
20
20-15=5
1
5
25
25-20=5
तालिका से स्पष्ट है कि जैसे–जैसे भूमि की इकाई के साथ श्रम की अधिक इकाइयों का प्रयोग किया जाता है। उत्पाद समान दर से बढ़ता जाता है। अर्थात सीमांत उत्पाद स्थिर रहता है।
 
Constant returns to a Factor
रेखा चित्र में TP कुल उत्पादन वक्र ऊपर की ओर सीधी रेखा में उठ रहा है| इससे से ज्ञात होता है कि कुल उत्पाद समान दर से बढ़ रहा है। साथ ही सीमांत उत्पादन वक्र से ज्ञात होता है कि परिवर्तनशील कारक का सीमांत उत्पाद स्थिर है।
 
कारक के समान प्रतिफल के कारण

Causes of Constant Returns to a Factor

 
1- स्थिर कारक का अनुकूलतम प्रयोग-
जब स्थिर कारकों के साथ परिवर्तनशील कारक की अधिक इकाइयों का प्रयोग करने से उत्पादन में वृद्धि होती है तो एक ऐसी स्थिति आती है। जब स्थिर कारक का अनुकूलतम प्रयोग होने लगता है। इस अवस्था में परिवर्तनशील कारक का सीमांत उत्पाद अधिकतम होता है तथा स्थिर रहता है।
 
2- आदर्श कारक अनुपात-
जब स्थिर तथा परिवर्तनशील कारक का आदर्श अनुपात में प्रयोग किया जाता है तो समान प्रतिफल की स्थिति उत्पन्न होती है। इस स्थिति में कारक का सीमांत उत्पाद अधिकतम तथा स्थिर रहता है।
 
3- परिवर्तनशील कारक का कुशलतम प्रयोग-
जब स्थिर कारक के साथ परिवर्तन के कारक की बढ़ती हुई इकाइयों का प्रयोग किया जाता है तो एक ऐसी स्थिति आती है जिसमें सबसे अधिक उपयुक्त श्रम-विभाजन संभव होता है। इसके फलस्वरूप परिवर्तनशील कारक जैसे श्रम का सबसे अधिक कुशलतम उपयोग होता है।
iii) कारक के घटते प्रतिफल का नियम या ह्रासमान प्रतिफल का नियम

Diminishing Returns to a Factor or Law of Diminishing Returns

 
कारक के घटते प्रतिफल या ह्रासमान प्रतिफल का नियम वह स्थिति है जिसमें कुल उत्पाद घटती हुई दर पर बढ़ता है। जब स्थिर कारक की एक निश्चित इकाई के साथ परिवर्तनशील कारक के अधिक इकाइयों का प्रयोग किया जाता है। इस स्थिति में परिवर्तनशील कारक का सीमांत उत्पाद कम होता जाता है। अन्य शब्दों में उत्पादन की सीमांत लागत बढ़ती जाती है।
बेन्हम के शब्दों में, “कारक के घटते प्रतिफल के नियम के अनुसार जैसे-जैसे कारकों के संयोग में किसी एक कारक का अनुपात पढ़ाया जाता है। वैसे वैसे एक सीमा के पश्चात उस कारक का सीमांत उत्पाद कम होने लगता है।”
व्याख्या
कारक के घटते प्रतिफल या ह्रासमान प्रतिफल के नियम की व्याख्या निम्न तालिका और रेखा चित्र की सहायता से की जा सकती है-
 
भूमि की इकाइयाँ
श्रम की इकाइयाँ
कुल उत्पाद
सीमांत उत्पाद
1
1
5
5
1
2
8
8-5=3
1
3
10
10-8=2
1
4
11
11-10=1
1
5
11
11-11=0
1
6
10
10-11= -1
तालिका से ज्ञात होता है कि जैसे–जैसे भूमि की इकाइयों के साथ श्रम के अधिक इकाइयों का प्रयोग किया जाता है तो कुल उत्पाद घटती दर पर बढ़ता है और पांचवी इकाई के बाद गिरना आरंभ हो जाता है। परिवर्तनशील कारक अर्थात श्रम का सीमांत उत्पाद घटता जाता है। एक बिंदु के पश्चात यह 0 तथा ऋणात्मक भी हो जाता है।
Diminishing returns to a Factor
रेखाचित्र से यह ज्ञात होता है कि कुल उत्पाद घटती दर से बढ़ रहा है और P बिंदु के पश्चात गिरना आरंभ हो जाता है। साथ ही सीमांत उत्पाद वक्र से ज्ञात होता है कि परिवर्तनशील कारक का सीमांत उत्पाद घटता जा रहा है।
कारक के घटते प्रतिफल के लागू होने के कारण
 
1-उत्पादन के स्थिर कारक-
इस नियम के लागू होने का मुख्य कारण यह है कि उत्पादन का कोई न कोई कारक स्थिर होता है। जब यह कारक परिवर्तनशील कारकों के साथ प्रयोग में लाया जाता है तो परिवर्तनशील कारकों की तुलना में इसका अनुपात कम हो जाता है। इसलिए परिवर्तनशील कार्य किए अतिरिक्त इकाई को स्थिर कारक की कम इकाइयों के साथ उत्पादन करना पड़ता है तो परिवर्तनशील कारक का सीमांत उत्पाद कम होने लगता है।
 
2-अपूर्ण कारक स्थानापन्न-
श्रीमती जॉन रॉबिंसन के अनुसार घटते प्रतिफल के नियम के लागू होने का मुख्य कारण कारकों में पाई जाने वाली अपूर्ण स्थानापन्नता है। एक कारक के स्थान पर दूसरे कारक का पूरी तरह प्रयोग नहीं किया जा सकता। इसलिए जब स्थिर कारक का कुशलतम प्रयोग होने लगता है तो उसके स्थान पर किसी दूसरे कारक का स्थानापन्न नहीं किया जा सकता। इसके फलस्वरूप परिवर्तनशील कारको तथा स्थिर कारकों का अनुपात उचित नहीं हो पाता तथा परिवर्तनशील कारक का सीमांत उत्पाद कम होने लगता है।
 
3-कारकों की कम समन्वयता-
स्थिर कारक के साथ परिवर्तनशील कारक के निरंतर बढ़ते हुए प्रयोग के कारण उनमें आदर्श कारक अनुपात नहीं रह पाता। इसके फलस्वरूप, परिवर्तनशील तथा स्थिर कारकों का उपयोग समन्वय नहीं रह पाता तथा परिवर्तनशील कारक का सीमांत उत्पाद कम होने लगता है।
नियम का लागू होना

Application of the Law

 
कारक के घटते प्रतिफल के नियम के लागू होने के संबंध में अर्थशास्त्रियों में मतभेद पाया जाता है। मार्शल ने इस धारणा को अपने शब्दों में व्यक्त किया है, “जहां प्रकृति द्वारा उत्पादन में दिए जाने वाले योगदान में घटते प्रतिफल की प्रवृत्ति होती है। वहां मनुष्य द्वारा उत्पादन में दिए जाने वाले योगदान में बढ़ते प्रतिफल की प्रवृत्ति होती है।”
इस कथन से यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि कृषि में प्रकृति का योगदान उद्योगों की अपेक्षा अधिक होता है। इसलिए कृषि पर रखे प्रतिफल का नियम लागू होता है। इसके विपरीत उद्योगों में मनुष्य का योगदान अधिक होता है। इसलिए परिवर्तनशील कारक के बढ़ते प्रतिफल के लागू होने की प्रवृत्ति पाई जाती है।
परन्तु आधुनिक अर्थशास्त्रियों के अनुसार यह धारणा उचित नहीं है। उनके अनुसार इस नियम के लागू होने का मुख्य कारण किसी एक कारक का स्थिर होना है। यह स्थिर कारक केवल भूमि, कारखानें, मछली पालन या भवन ही नहीं होते बल्कि मशीनें, कच्चा माल आदि भी हो सकते हैं। इसलिए यह नियम उत्पाद के प्रत्येक क्षेत्र अर्थात कृषि, खनिज, उद्योग आदि में लागू होता है। कृषि में यह अन्य क्षेत्रों की तुलना में जल्दी लागू होने लगता है।
 
परिवर्ती अनुपात का नियम या घटते-बढ़ते अनुपात का नियम

Law of variable Proportions

 
आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने उपरोक्त तीनों प्रवृत्तियों के स्थान पर परिवर्ती अनुपात के नियम का प्रतिपादन किया है। उनके अनुसार अल्पकाल में जब किसी वस्तु का उत्पादन बढ़ाया जाता है तो परिवर्ती अनुपात का नियम लागू होता है। अल्पकाल में जब उत्पादन के कारक की मात्रा को बढ़ाया जाता है तो कारकों के अनुपात में परिवर्तन हो जाता है। कारको के अनुपात में परिवर्तन होने के कारण उत्पादन की मात्रा में विभिन्न दरों से परिवर्तन होता है। अर्थशास्त्र में इस प्रवृत्ति को परिवर्ती अनुपात का नियम कहा गया है। परिवर्ती अनुपात के नियम के अनुसार जब उत्पादन का केवल एक कारक परिवर्तनशील होता है तथा अन्य कारक स्थिर होते हैं तो उत्पादन के परिवर्तनशील कारक के अनुपात में वृद्धि करने से उत्पादन पहले बढ़ते अनुपात में बढ़ता है। फिर समान अनुपात में तथा इसके बाद घटते हुए अनुपात में बढ़ता है। इसे ही परिवर्ती अनुपात का नियम या घटते-बढ़ते अनुपात का नियम कहा गया है।
लेफ़्टविच के अनुसार, “परिवर्ती अनुपात का नियम बताता है कि यदि प्रति इकाई समयानुसार एक कारक की मात्रा में समान इकाइयों में वृद्धि की जाती है तथा अन्य कारकों की मात्राएं स्थिर रखी जाती है तो वस्तु के कुल उत्पादन में वृद्धि होगी। लेकिन एक बिंदु के बाद प्राप्त उत्पादन की वृद्धियाँ धीरे–धीरे कम होती जाएंगी।
मान्यताएं

Assumptions

 
इस नियम की मुख्य मान्यतायें निम्न प्रकार है-
  • i) उत्पादन फलन स्थिर अनुपात प्रकार का नहीं है। इसके विपरीत यह परिवर्तनशील अनुपात प्रकार का है। इसका अभिप्राय है कि स्थिर कारक के साथ परिवर्तनशील कारक की अधिक मात्रा का प्रयोग करके उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है।
  • ii) परिवर्तनशील कारक की सभी इकाइयां समरूप है या समान रूप से कुशल है। इनका एक एक करके प्रयोग किया जा सकता है।
  • iii) उत्पादन के कुछ कारक स्थिर है इसलिए उत्पादन में वृद्धि केवल परिवर्तनशील कारक में वृद्धि करके ही की जा सकती है।
  • iv) इस नियम के सबसे महत्वपूर्ण मान्यता यह है कि उत्पादन की तकनीक में कोई परिवर्तन नहीं होता है। वास्तव में उत्पादन की तकनीक में परिवर्तन होने से इस नियम को लागू होने से रोका जा सकता है। क्योंकि उत्पादन की तकनीक में सुधार होने से पहले जितने कारकों से अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है या कम कारकों से पहले जितना उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है।
परिवर्ती अनुपात के नियम की व्याख्या

Explanation of Law of variable Proportions

 
परिवर्ती अनुपात के नियम की व्याख्या तालिका और रेखा चित्र की सहायता से की जा सकती है-
 
भूमि की इकाइयाँ
श्रम की इकाइयाँ
कुल उत्पाद
(TP)
सीमांत उत्पाद
(MP)
औसत उत्पाद
(AP)
विवरण
1
1
2
2
2
सीमांत उत्पाद (MP) में होने 
वाली वृद्धि के कारण इसे 
बढ़ते प्रतिफल की अवस्था कहा गया है |
1
2
5
3
2.5
1
3
9
4
3
पहली अवस्था का अंत
दूसरी अवस्था का आरंभ
सीमांत उत्पाद (MP) में होने
वाली कमी के कारण
इसे घटते प्रतिफल की अवस्था
कहा गया है |
1
4
11
2
2.7
1
5
12
1
2.4
1
6
12
0
2.0
दूसरी अवस्था का अंत
तीसरी अवस्था का आरम्भ
ऋणात्मक सीमांत उत्पाद (MP)
तथा घटते हुए कुल उत्पाद (TP) के कारण इसे 
ऋणात्मक प्रतिफल
की अवस्था कहा जाता है |
1
7
11
-1
1.6
यह तालिका इस मान्यता पर बनाई गई है कि भूमि उत्पादन का स्थिर साधन तथा श्रम परिवर्तनशील कारक है। उत्पादन को बढ़ाने के लिए परिवर्तनशील कारक की मात्रा में वृद्धि की जाती है। उत्पादन की पहली अवस्था में जैसे-जैसे किसी कारक की मात्रा बढ़ाई जाती है तो सीमांत उत्पाद में वृद्धि होती है। दूसरी अवस्था में उत्पादन के कारक की मात्रा बढ़ाने पर कुल उत्पाद घटती दर पर बढ़ता है परंतु सीमांत उत्पाद में कमी होती जाती है। तीसरी अवस्था में कुल उत्पाद में कमी होती है तथा सीमांत उत्पादन ऋणात्मक हो जाता है।
रेखाचित्र मेंOX अक्ष पर श्रम की संख्या तथा OY अक्ष पर उत्पादन की मात्रा दर्शाई गई है। TP कुल उत्पाद वक्र है। इस वक्र से ज्ञात होता है कि बिंदु E तक कुल उत्पाद बढ़ती दर से बढ़ रहा है। इस स्थिति में सीमांत उत्पाद H बिंदु पर अधिकतम होता है। बिंदु E और G के बीच यह घटती दर से बढ़ रहा है और बिंदु G पर यह अधिकतम हो जाता है। उसके पश्चात यह कम होना शुरू हो गया है। इसी तरह बिंदु C पर सीमांत उत्पाद शून्य हो जाता है तथा इससे आगे सीमांत उत्पाद ऋणात्मक होना शुरू हो जाता है। सीमांत उत्पाद वक्र औसत उत्पाद वक्र के उच्चतम बिंदु I पर काटता है। इस बिंदु I के बाद औसत उत्पाद भी घटना आरंभ हो जाता है।
उत्पादन के परिवर्ती अनुपात नियम की व्याख्या  संक्षेप में हमने तरीके से कर सकते हैं-
 
अवस्था
कुल उत्पाद (TP)
सीमांत उत्पाद (MP)
औसत उत्पाद (AP)
पहली अवस्था
बिंदु O से E तक
O से E तक बढती दर पर
बढ़ रहा है |
पहले बढ़ता हुआ अधिकतम बिंदु
H तक पहुँचकर घटना
आरम्भ हो जाता है|
यह बढ़ता जाता है, परन्तु
सीमांत  उत्पाद (MP)
से कम रहता है|
दूसरी अवस्था
बिंदु E से G तक
घटती दर से बढ़ते हुए (बिंदु
E से G तक) अधिकतम बिंदु
G पर पहुँचता है |
अधिकतम बिंदु H तक पहुँचकर
घटना आरम्भ हो कर बिंदु C पर
शून्य हो जाता है|
अधिकतम बिंदु I पर पहुँचकर
घटना आरम्भ हो जाता है| बिंदु
I पर AP=MP
तीसरी अवस्था
बिंदु G के बाद 
घटना आरम्भ हो जाता है|
ऋणात्मक हो जाता है|
घटना जारी रहता है| परन्तु
कभी भी शून्य नही होता|
उत्पाद की अवस्थाओं का महत्व

Significance of the stages of Production

 
परिवर्ती अनुपात के नियम के अनुसार एक पाठ उत्पादक उत्पादन की प्रथम अवस्था में उत्पादन करना जारी रखता है क्योंकि इस अवस्था में परिवर्तनशील कारक की प्रत्येक इकाई लगाने से सीमांत उत्पाद और औसत उत्पाद में निरंतर वृध्दि हो रही है| अतएव इस अवस्था में उत्पाद को रोकने से उत्पादक को हानि होगी।
 
उत्पादक के लिए उत्पादन की दूसरी अवस्था का सबसे अधिक महत्व है। वह उत्पादन की दूसरी अवस्था के अंत तक उत्पादन करना पसंद करता है क्योंकि इस अवस्था में कुल उत्पाद में निरंतर वृद्धि हो रही है। एक उत्पादक संतुलन की स्थिति में केवल दूसरी अवस्था में ही होगा।
एक उत्पादक तीसरी अवस्था में उत्पादन नहीं करेगा क्योंकि इस अवस्था में परिवर्तनशील कारक की प्रत्येक अतिरिक्त इकाई लगाने से उत्पादन में निरंतर कमी हो रही है तथा सीमांत उत्पादन ऋणात्मक हो जाता है। संक्षेप में एक फर्म केवल दूसरी अवस्था के अंत तक उत्पादन करना पसंद करेंगी।
नियम के लागू होने के कारण

Causes of Application of the law

 
i) कारकों की अविभाजिता-
बढ़ते प्रतिफल की व्यवस्था के लागू होने का मुख्य कारण यह है कि कुछ कारक अविभाजित होते हैं और इसका अर्थ यह है कि एक निश्चित सीमा तक उत्पादन करने के लिए उस कारक की कम से कम एक इकाई की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए-उत्पादन करने के लिए किसी विशेष मशीन की आवश्यकता हो तो चाहे उत्पादक एक इकाई बनाए या सौ इकाइयां बनाए, उसे उस मशीन की आवश्यकता अवश्य रहेगी। जैसे–जैसे उत्पादक अपना उत्पादन बढ़ाता जाएगा, उसकी प्रति इकाई उस मशीन का प्रयोग करने की जो लागत है, वह कम होती जाएगी।
 
ii) उत्पादन के स्थिर कारक-
इस नियम के लागू होने का मुख्य कारण यह है कि उत्पादन के कुछ कारक स्थिर होते हैं। जब यह स्थिर कारक परिवर्ती कारकों के साथ प्रयोग में लाए जाते हैं तो परिवर्तनशील कारकों की तुलना में इनका अनुपात कम हो जाता है। उदाहरण के लिए 1 एकड़ में 5 श्रमिक काम कर रहे हैं तो श्रमिकों के कारण (अनुपात=1:5) भूमि का पूर्ण उपयोग हो रहा है। यदि इसी खेत में श्रमिकों की संख्या बढ़ाकर 10 कर दी जाए तो श्रमिक और भूमि का अनुपात 1:10 हो जाएगा। अतः प्रति श्रमिक की तुलना में भूमि का अनुपात कम होता जाएगा और श्रमिकों का सीमांत उत्पाद कम होता जाएगा।
 
iii) स्थिर कारक का इष्टतम से अधिक उपयोग-
जब किसी प्रकार का इष्टतम उपयोग अर्थात कुशलतम प्रयोग (Optimum utilization) होने के पश्चात उसके साथ लगाए जाने वाले परिवर्ती कारक की मात्रा को बढ़ाया जाता है तो परिवर्ती कारक का सीमांत प्रतिफल कम होने लगता है।
 
iv) अपूर्ण स्थानापन्न-
श्रीमती जॉन रोबिन्सन के अनुसार परिवर्ती अनुपात के नियम के लागू होने का मुख्य कारण कारकों में पाई जाने वाली अपूर्ण स्थानापन्नता है। एक कारक के स्थान पर दूसरे कारक का पूरी तरह से प्रयोग नहीं किया जा सकता।
If you have any doubt or query regarding above notes, feel free to comment us. Team Economics Online Class is here for your help.
~Admin

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