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Class 12 Macro Economics Chapter 6-Money-Meaning, Functions and supply

Class 12 Macro Economics Chapter 6-Money-Meaning, Functions and supply

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पाठ 6 मुद्रा- अर्थ, कार्य एवं पूर्ति

Money- Meaning, Functions and Supply

मुद्रा का अर्थ एवं विकास

कोई भी मनुष्य अपनी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं नहीं कर सकता है। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए एक दूसरे पर निर्भर करते हैं। अतः इस निर्भरता के फलस्वरुप ही वस्तुओं और सेवाओं का विनिमय होता है। आदिकाल में जब आवश्यकता में अधिक विविधता नहीं पाई जाती थी थी तो वस्तुओं का प्रत्यक्ष रूप से वस्तुओं के रूप में विनिमय कर लिया जाता था। उदाहरण के लिए प्राचीन काल में एक ग्रामीण समुदाय में जूता बनाने वाला किसान के लिए गेहूं के बदले में जूता बनाता था और किसान अनाज के बदले अपने अन्य आवश्यकताओं को पूरी करता था।  कृषि-श्रमिक अनाज के लिए खेतों में काम करता था। इसी प्रकार परस्पर लेनदेन से अर्थव्यवस्था चलती रहती थी।

विनिमय के इस प्रणाली को वस्तु विनिमय प्रणाली कहा जाता था। परंतु समय के साथ आवश्यकताओं में विविधता बढ़ जाने तथा विनिमय की आवश्यकता अधिक हो जाने के फलस्वरूप वस्तु विनिमय प्रणाली एक अव्यवहारिक विनिमय प्रणाली सिद्ध हुई। इस स्थिति में मनुष्य ने मुद्रा अर्थात एक ऐसे साधन का आविष्कार किया जिसे सामान्य रूप से विनिमय के माध्यम के रूप में स्वीकार किया जाने लगा। प्राचीन काल में शंख, सिप्पी व कौड़ी आदि से लेकर सोने व चांदी जैसी धातुओं के सिक्के प्रचलित किए गए। धीरे-धीरे कागजी मुद्रा के साथ-साथ अन्य धातु के सिक्के भी प्रचलन के लिए जारी किए जाने लगे। और वर्तमान युग तो नाम कार्ड (Debit Card) तथा जमा कार्ड (Credit Card) के रूप में प्लास्टिक मुद्रा का युग है। अतः मुद्रा का जन्म विनिमय की आवश्यकता को पूरा करने के लिए हुआ था। इसलिए मुद्रा की परिभाषा एक ऐसी वस्तु के रूप में दी जा सकती है जो सामान्य रूप से विनिमय के माध्यम के रूप में स्वीकार की जाती है।

वस्तु विनिमय प्रणाली- (Barter System of Excahnge)

वस्तु विनिमय प्रणाली उस प्रणाली को कहते हैं जिसमें वस्तु का विनिमय वस्तु से किया जाता है, अर्थात वस्तु के बदले में वस्तु का ही लेन-देन किया जाता है। 

आर. पी. कैंट के शब्दों में, “वस्तु विनिमय मुद्रा के विनिमय के माध्यम के रूप में प्रयोग किए बिना वस्तुओं का वस्तुओं के लिए प्रत्यक्ष विनिमय है।”

उदाहरण के लिए वस्तु विनिमय प्रणाली में एक किसान के पास यदि गेहूं का जरूरत से अधिक भंडार है और उसे कपड़े की आवश्यकता है तो उसे एक ऐसे व्यक्ति की तलाश होगी जिसे गेहूं की जरूरत है और जिसके पास बदले में देने के लिए कपड़ा हो। जबकि वर्तमान समय में किसान अपने अतिरिक्त गेहूं को मुद्रा के रूप में बेचते हैं और एक कपड़े के व्यापारी को मुद्रा देकर कपड़ा प्राप्त कर करते हैं। इस प्रकार गेहूं का मुद्रा के साथ और कपड़े का भी मुद्रा के साथ विनिमय किया जाता है। यहाँ मुद्रा विनिमय के माध्यम के रूप में कार्य करती है। वस्तु-वस्तु अर्थव्यवस्था (C-C Economy) में ऐसा कोई विनिमय का माध्यम नहीं होता। इसमें वस्तुओं का विनिमय वस्तुओं से होता है। वस्तु-वस्तु अर्थव्यवस्था को वस्तु विनिमय प्रणाली कहते हैं। अतः वस्तु-वस्तु अर्थव्यवस्था उस अर्थव्यवस्था को कहते हैं जिसमें वस्तु विनिमय प्रणाली का प्रचलन होता है और मुद्रा का प्रयोग विनिमय के लिए नहीं किया जाता है।

वस्तु विनिमय प्रणाली की कठिनाइयाँ/असुविधाएं-(Drawbacks of the Barter System)

1- आवश्यकता के दोहरे संयोग की कठिनाई- (Difficulty of double Coincidence of wants)

आवश्यकताओं का दोहरा संयोग वस्तु विनिमय प्रणाली की एक आवश्यक शर्त है। आवश्यकताओं के दोहरे संयोग से अभिप्राय यह है कि किसी एक व्यक्ति की अतिरिक्त वस्तु दूसरे की आवश्यकता को और दूसरे व्यक्ति की अतिरिक्त वस्तु पहले की आवश्यकता को पूरा करें।

वास्तव में आवश्यकताओं का दोहरा संयोग होना बहुत ही कठिन है। उदाहरण के लिए एक किसान अपने अतिरिक्त गेहूं को बेचकर कपड़ा प्राप्त करना चाहता है तो उसे ऐसे व्यक्ति को ही ढूंढना पड़ेगा जिसके पास अतिरिक्त कपड़ा हो और उसे गेहूं की आवश्यकता हो।

2- वस्तु विनिमय की व्यापार संबंधी लागत- (Trading Costs of Barter Exchange)

आवश्यकताओं का दोहरा सहयोग एक दुर्लभ घटना होने के कारण वस्तु विनिमय प्रणाली में व्यापार करने की लागत बहुत ऊंची होती है। इन लागतो में तलाश की लागत अर्थात उस व्यक्ति को तलाश करने की लागत जिसकी जरूरतें आप से मेल खाती हैं और प्रतीक्षा की अनुपयोगिता शामिल है।

3- मूल्य की समान इकाई का अभाव- (Lack of Common Unit of Value)

वस्तु विनिमय प्रणाली में मूल्य के समान इकाई का अभाव पाया जाता है। इस अभाव में किसी वस्तु का मूल्य व्यक्त करना बहुत कठिन होता है। उदाहरण के लिए वर्तमान समय में 1 बोरी गेहूं का मूल्य आसानी से मुद्रा में व्यक्त किया जा सकता है। परंतु वस्तु विनिमय प्रणाली में इसका मूल्य कई वस्तुओं के रूप में होता है जो कि बहुत ही असुविधाजनक और हास्यप्रद होता है।

4- स्थगित भुगतनों की प्रणाली का अभाव- (Lack of a system for Deferred or future payments)

भविष्य के लिए किए जाने वाले या स्थगित भुगतान उस अभिप्राय उन भुगतानों से है जिन्हें तत्काल न  करके भविष्य में कुछ समय पश्चात किया जाता है। वस्तु विनिमय प्रणाली में स्थगित भुगतान करना बहुत कठिन होता है क्योंकि इस दौरान वस्तुओं की गुणवत्ता, मूल्य इत्यादि में घट बढ़ हो सकती है।

5- मूल्य के संचय में कठिनाई- (Difficulty of store of Value or Wealth)

वस्तु विनिमय प्रणाली में मुद्रा के अभाव में धन या मूल्य का संचय वस्तुओं या पशुओं के रूप में ही किया जा सकता है। परंतु इस दशा में निम्न कारणों से धन का संचय करना संभव नहीं होता-

  • कुछ वस्तुएं जैसे अनाज सब्जियां आदि तथा पशु नाशवान होते हैं। इनका अधिक समय तक संचय नहीं किया जा सकता। यदि इनके रूप में धन का संचय किया जाएगा तो वह कुछ समय बाद नष्ट  हो ही जाएगा।
  • कई वस्तुओं की किस्म तथा गुण समय के साथ-साथ खराब होते जाते हैं।  इस प्रकार उनका मूल्य कम हो जाता है।
  • वस्तु तथा पशुओं का संचय करने के लिए बहुत अधिक लंबे चौड़े स्थान की आवश्यकता होती है।
  • पशुओं को जीवित रखने के लिए उन पर लगातार धन खर्च करना पड़ता है।  

अतः वस्तु विनिमय प्रणाली में धन का संचय करना कठिन कार्य होता है।

6- मूल्य के हस्तांतरण में कठिनाई- (Difficulty of Transfer of Value)

वस्तु विनिमय प्रणाली में वस्तुओं के मूल्य का स्थानांतरण करना अर्थात एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजना बहुत कठिन होता है। उदाहरण के लिए एक व्यक्ति अपना मकान बेचकर दूसरी जगह जाना चाहता है तो उसे मकान के बदले में वस्तु तथा पशु आदि ही प्राप्त होंगे। इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना काफी कठिन कार्य होगा। मार्ग में पशु बीमार हो सकते हैं तथा मर भी सकते हैं। इसलिए मूल्य का हस्तांतरण करना संभव नहीं होता है।

मुद्रा प्रणाली- (Money System)

कोई भी वस्तु जो विनिमय के माध्यम के रूप में कार्य करती है, मुद्रा कहलाती है। इसके अतिरिक्त मुद्रा मूल्य संचय, मूल्य का मापक तथा स्थगित भुगतनों के मान के रूप में भी कार्य करती है।

क्राउथर के अनुसार, “मुद्रा की परिभाषा ऐसी किसी भी वस्तु के रूप में दी जा सकती है जिसे साधारणतः  विनिमय का माध्यम स्वीकार किया जाता है और इसके साथ ही जो मूल्य के मापक और मूल्य के संचय का भी कार्य करती हो।”

मुद्रा के वैधानिक तथा कार्यात्मक परिभाषा (Legal and Functional Definition of Money)

कानूनी तौर पर मुद्रा कोई भी ऐसी वस्तु हो सकती है जिसे कानून द्वारा विनिमय का माध्यम घोषित किया जाए। कागजी नोट तथा सिक्के जिन्हें सामूहिक रूप से करेंसी कहा जाता है, कानूनी तौर पर मुद्रा है। कोई भी व्यक्ति इन्हें विनिमय के माध्यम के रूप में स्वीकार करने से इनकार नहीं कर सकता है। किसी भी देश की करेंसी को आदेश मुद्रा (Fiat Money) भी कहा जाता है क्योंकि इसके पीछे सरकारी आदेश या सत्ता होती है।

मुद्रा के कार्यात्मक परिभाषा के अनुसार कोई भी वस्तु मुद्रा हो सकती है जो चार मूल कार्य करती है-

  1. विनिमय के माध्यम का कार्य
  2. मूल्य के मापदंड का कार्य
  3. भावी भुगतानों के मान का कार्य और
  4. मूल्य के संचय का कार्य।

मुद्रा के संकुचित तथा विस्तृत परिभाषा (Narrow and Broad Definition of Money)

मुद्रा के कार्यात्मक परिभाषा को संकुचित परिभाषा माना जाता है। इसके अनुसार मुद्रा में केवल नोट, सिक्के और मांग जमायें आदि को ही सम्मिलित किया जाता है।

मुद्रा के विस्तृत परिभाषा में मुद्रा के अन्य घटकों जैसे बैंकों तथा डाकखानों में समय जमा अवधि को भी सम्मिलित किया जाता है।

मुद्रा की संकुचित परिभाषा के अनुसार मुद्रा में केवल नोट, सिक्के तथा माँग जमाओं को ही सम्मिलित किया जाता है। अर्थात

            मुद्रा= करेंसी + माँग जमायें

मुद्रा की विस्तृत परिभाषा में उपरोक्त के अतिरिक्त बैंक तथा डाकखानों में समय जमा/सावधि जमाओं अर्थात ‘निकट मुद्रा’ को भी सम्मिलित किया जाता है।

            मुद्रा= करेंसी + माँग जमायें + निकट मौद्रिक परिसंपत्तियाँ

मुद्रा का मौद्रिक मूल्य तथा मुद्रा का वस्तु मूल्य (Money value of Money and Commodity Value of Money)

मुद्रा का मौद्रिक मूल्य (Money Value of Money)

मुद्रा के मौद्रिक मूल्य से अभिप्राय किसी सिक्के या कागजी नोट पर अंकित मूल्य से है। कागजी नोट का मौद्रिक मूल्य वही होता है जो उस पर अंकित अथवा छपा होता है।  जैसे ₹500 का नोट इत्यादि। अतः ₹500 के नोट से आप बाजार से ₹500 की मूल्य की वस्तुएं तथा सेवाएं खरीद सकते हैं।

मुद्रा का वस्तु मूल्य (Commodity Value of Money)

किसी सिक्के या नोट को बनाने में प्रयोग हुई धातु या अन्य वस्तु के मूल्य को मुद्रा का वस्तु मूल्य कहते हैं। अर्थात मुद्रा का वस्तु मूल्य उस मुद्रा को बनाने में लगी हुई धातु अथवा कागज या किसी अन्य वस्तु के मूल्य से है। पुराने समय में बने हुए सोने या चांदी के सिक्के का मुद्रा का वस्तु मूल्य, एक सिक्के में लगी सोने या चांदी धातु के बाजार मूल्य के बराबर होगा।

मुद्रा का वर्गीकरण (Classification of Money)

1- पूर्णकाय मुद्रा-(Full Bodied Money)

पूर्ण-काय मुद्रा से हमारा अभिप्राय उस मुद्रा से है जो सिक्कों के रूप में होती है। यदि सिक्के पर अंकित मूल्य और उसमें लगी धातु का मूल्य बराबर होता है तो ऐसे सिक्के को पूर्ण-कार्य मुद्रा कहा जाता है। उदाहरण के लिए अंग्रेजी शासनकाल में ₹1 का सिक्का चांदी का बना होता था। इस सिक्के का वस्तु मूल्य इसके मौद्रिक मूल्य के बराबर होता था। अन्य शब्दों में एक सिक्के में लगी चांदी का बाजार मूल्य ₹1 होता था।  अतः चांदी का रुपया एक पूर्णकाय मुद्रा थी।

2- प्रतिनिधि पूर्ण-काय मुद्रा (Representative Full Bodied Money)

इसका संबंध कागजी नोटों से है। यह नोट पूर्ण-काय मुद्रा का प्रतिनिधित्व करते हैं। वास्तव में प्रतिनिधि पूर्ण-कार्य मुद्रा सिक्कों का प्रतिनिधित्व करने वाली ‘चिट’ (Receipt) की तरह होती है जिसे सरकार जारी करती है। जिस कागज पर नोट छपे होते हैं, उस कागज का अपना बाजार मूल्य बहुत कम होता है।

3- साख मुद्रा (Credit Money)

साख मुद्रा उस मुद्रा को कहते हैं जिसका मौद्रिक मूल्य उसके वस्तु मूल्य से अधिक होता है। साख मुद्रा में निम्नलिखित को शामिल किया जाता है-

      i) प्रतीक सिक्के (Token Coins) – भारत में ₹1 का सिक्का या 50 पैसे का सिक्का साख मुद्रा है क्योंकि सिक्के में लगी धातु का बाजार मूल्य उस पर अंकित मूल्य से बहुत कम होता है।

      ii) प्रतिनिधि प्रतीक मुद्रा (Representative Token coins) – प्रतिनिधि प्रतीक मुद्रा वह मुद्रा है जिसके अंकित मूल्य तथा वास्तविक मूल्य बराबर नहीं होते हैं। यह मुद्रा की सूचक अथवा प्रतिनिधि होती है।  पत्र मुद्रा (Paper money) प्रतिनिधि मुद्रा का उदाहरण है।

      iii) केन्द्रीय बैंक के प्रोनोट (Circulating Promossory Notes of Central Bank)- यह वह कागजी नोट है जो केंद्रीय बैंक द्वारा जारी किए जाते हैं। जैसे ₹500 या ₹2000 का नोट। इन नोट पर यह वाक्य लिखा होता है “मैं धारक को ₹500 अदा करने का वचन देता हूं।” कागज का टुकड़ा जिस पर उपरोक्त वचन छपा रहता है, इस कागज़ के टुकड़े का वस्तु मूल्य कुछ भी नहीं होता। इससे स्पष्ट है कि प्रॉमिससरी नोट का वस्तु मूल्य उसके मौद्रिक मूल्य से बहुत कम है।  अतः इसे साख मुद्रा कहा जाता है।

      iv) बैंक की माँग जमायें (Demand Deposits at Bank) – मांग जमाओं को चेक द्वारा निकलवाया जा सकता है या चेक जारी करके किसी अन्य व्यक्ति के खाते में हस्तांतरित किया जा सकता है। इन जमाओं के पीछे बैंकों द्वारा किसी मूल्यवान धातु सोना या चांदी का कोई आश्वासन नहीं दिया जाता। दूसरे शब्दों में एक चेक का वस्तु मूल्य, उसके मौद्रिक मूल्य से बहुत कम होता है। अतः चेकों द्वारा निकलवाई जाने वाली जमाएँ भी साख मुद्रा होती है।

मुद्रा के कार्य (Functions of money)

A- प्राथमिक कार्य (Primary or Main functions of Money)

1) विनिमय का माध्यम (Medium of Exchange)

मुद्रा का सबसे महत्वपूर्ण कार्य विनिमय का माध्यम है। इसका अभिप्राय यह है कि एक व्यक्ति अपनी वस्तुओं को बेचकर मुद्रा प्राप्त करता है तथा मुद्रा देकर अन्य वस्तुओं को खरीदता है।  मुद्रा क्रय तथा विक्रय दोनों में ही एक मध्यस्थ का कार्य करती है। विनिमय के माध्यम के रूप में मुद्रा ने वस्तु विनिमय प्रणाली की मुख्य कठिनाई अर्थात आवश्यकताओं के दोहरे सहयोग के अभाव को समाप्त कर दिया है। इसके फलस्वरूप विनिमय का कार्य सरल और सुगम हो गया है तथा समय और परिश्रम की बहुत अधिक बचत हुई है। मुद्रा के विनिमय के माध्यम के रूप में कार्य करने का अभिप्राय यह है कि इसे लोग सामान्य रूप से स्वीकार करते हैं। इसलिए मुद्रा के द्वारा वे अपनी इच्छा की विभिन्न वस्तुएं खरीद सकते हैं अर्थात बहुपक्षीय व्यापार कर सकते हैं। इस प्रकार मुद्रा लोगों को आर्थिक स्वतंत्रता प्रदान करती है तथा बाजार का विस्तार तथा प्रतियोगिता बढ़ाकर बाजार संयंत्र को निपुण बनाती है।

2) मूल्य का मापदण्ड या मूल्य की इकाई (Measure of Value or Unit of Value)

मुद्रा का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण कार्य वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्य को मापना है। मुद्रा लेखांकन की इकाई के रूप में मूल्य का माप करती है। लेखांकन की इकाई से अभिप्राय यह है कि प्रत्येक वस्तु तथा सेवा का मूल्य मुद्रा के रूप में मापा जा सकता है। वस्तु विनिमय प्रणाली की एक मुख्य कठिनाई मूल्य को मापने का अभाव था। मुद्रा के द्वारा इस कठिनाई को दूर किया जा सकता है। प्रत्येक वस्तु और सेवा की कीमत मुद्रा के रूप में व्यक्त की जा सकती है। मुद्रा के इस कार्य के फलस्वरुप व्यापारिक फ़र्में अपनी लागत, आय,  लाभ-हानि इत्यादि का अनुमान लगा सकती है। देश की राष्ट्रीय आय तथा प्रति व्यक्ति आय की गणना की जा सकती है तथा योजनाओं का निर्माण किया जा सकता है।

B- गौण अथवा सहायक कार्य (Secondary or Subsidiary Functions of Money)

1) स्थगित भुगतानों का मान (Standard of Deferred Payments)

जिन लेन-देन का भुगतान तत्काल न करके भविष्य के लिए स्थगित कर दिया जाता है, उन्हें स्थगित भुगतान कहा जाता है।  ऋणों के भुगतान को भी स्थगित भुगतान कहते हैं। मुद्रा के इस कार्य के फलस्वरूप स्थगित भुगतानों अथवा उधार लेन-देन की प्रक्रिया सरल बन गई है। वस्तु विनिमय प्रणाली में ऋण तथा ब्याज का वस्तु के रूप में लेनदेन करना एक कठिन कार्य था। उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति ने गेहूं के रूप में ऋण लिया है। जब वह ऋण वापस करेगा तो उसी गुणवत्ता का गेहूं देना संभव नहीं होगा। मुद्रा को स्थगित भुगतानों का मान इसलिए माना गया है क्योंकि

i) अन्य किसी वस्तु की तुलना में इसका मूल्य स्थिर रहता है।

ii) इसमें सामान्य स्वीकृति का गुण पाया जाता है और

iii) अन्य वस्तुओं की तुलना में यह अधिक टिकाऊ होती है।

मुद्रा के इस कार्य के फलस्वरूप ही व्यापार का इतना अधिक विकास संभव हुआ है।

2) मूल्य का संचय (Store of Value)

मुद्रा मूल्य के संचय के रूप में भी कार्य करती है। मुद्रा के मूल्य संचय का अर्थ है-धन का संचय।  इससे अभिप्राय यह है कि मुद्रा को अभी वस्तुओं तथा सेवाओं के लिए खर्च करने का कोई विचार नहीं है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आय का कुछ भाग भविष्य के लिए बचाता है। इसे ही मूल्य का संचय कहा जाता है। वस्तु विनिमय प्रणाली के अंतर्गत मूल्य का संचय करना संभव नहीं था क्योंकि i) वस्तुएँ नाशवान प्रकृति की होती है।  ii) वस्तुओं को भुगतान के रूप में सभी व्यक्ति स्वीकार नहीं करते। परंतु मुद्रा के रूप में मूल्य/धन का संचय करना सरल होता है क्योंकि

i) मुद्रा को सब लोग स्वीकार कर लेते हैं।

ii) मुद्रा के मूल्य में बहुत अधिक कमी या वृद्धि नहीं होती

iii) मुद्रा का संग्रह सरलता से किया जा सकता है।

iv) मुद्रा के रूप में बचत करने में बहुत ही कम स्थान की आवश्यकता होती है।

न्यूलन (Newlyn) ने मुद्रा के इस कार्य को मुद्रा का परिसंपत्ति कार्य (Asset Function of Money) कहा है।  

3) मूल्य का हस्तांतरण (Transfer of Value)

मुद्रा के कारण मूल्य का हस्तांतरण सुविधाजनक बन गया है। इसका अभिप्राय यह है कि व्यक्ति एक स्थान से अपनी परिसंपत्तियाँ बेचकर किसी अन्य स्थान पर जाकर आसानी से अपनी आवश्यकता की वस्तुएं खरीद सकता है। जबकि वस्तु विनिमय प्रणाली में यह काफी कठिन होता था। क्योंकि वस्तु विनिमय प्रणाली में अपने परिसंपत्तियों को बेचने पर एक व्यक्ति को वस्तुएं और पशु ही प्राप्त होते थे। जिनका एक स्थान से दूसरे स्थान पर हस्तांतरण करना काफी कठिन होता था। मुद्रा के इस कार्य के फलस्वरूप के लोग अपने अतिरिक्त धन को अन्य व्यक्तियों को उधार देकर ब्याज के रूप में आय प्राप्त कर सकते हैं।

3- आकस्मिक कार्य (Contigent Functions of Money)

1) साख निर्माण का आधार (Basis of Credit Creation)

मुद्रा का प्रचलन से पूर्व साख का निर्माण संभव नहीं था। लोग अपनी आय में से कुछ राशि अर्थात मुद्रा बैंकों में जमा करवाते हैं। इस जमा को ही वह चेकों द्वारा मुद्रा के रूप में निकलवा सकते हैं। इस जमा राशि के आधार पर ही बैंक साख का निर्माण करते हैं।  

2) अधिकतम संतुष्टि का माप (Measurement of Maximum Satisfaction)

मुद्रा के रूप में धन व्यय करके एक उपभोक्ता अधिकतम संतुष्टि प्राप्त कर सकता है। एक उपभोक्ता विभिन्न वस्तुओं के उपभोग से अधिकतम संतुष्टि तभी प्राप्त कर सकता है जब उन वस्तुओं से प्राप्त होने वाली सीमांत उपयोगिता बराबर हो।  

3) राष्ट्रीय आय का वितरण (Distribution of National Income)

वस्तु विनिमय प्रणाली में उत्पादन के विभिन्न कारकों के बीच वस्तुओं के रूप में राष्ट्रीय आय का माप तथा वितरण करना कठिन कार्य था। मुद्रा के प्रचलन के पश्चात राष्ट्रीय आय का वितरण बहुत सरल हो गया है।  अब प्रत्येक कारक को उसके द्वारा किए गए कार्य का उचित भाग मुद्रा के रूप में मिल जाता है।  

4) निर्णय का वाहक (Bearer of option)

इस कार्य से अभिप्राय यह है कि मुद्रा के रूप में धन संचय करके हम परिस्थितियों के अनुसार वस्तुओं को खरीदने के संबंध में अपने निर्णय में परिवर्तन कर सकते हैं। उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति ने एक रंगीन टीवी खरीदने के लिए मुद्रा का संचय किया है परंतु उसे अपने परिवारजन की बीमारी के इलाज के लिए उसे धन की आवश्यकता हो तो वह रंगीन टीवी के लिए बचत की गई मुद्रा को इलाज पर खर्च कर सकता है। इस प्रकार मुद्रा का प्रयोग किसी भी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कर सकते हैं। मुद्रा व्यक्ति के निर्णय का वाहक है।

5) शोधन क्षमता की गारंटी (Guarantee of Solvency)

आर. पी. कैंट के अनुसार किसी व्यक्ति या संस्था के पास मुद्रा होना उसके शोधन क्षमता की गारंटी होती है। अपने शोधन क्षमता बनाए रखने के लिए प्रत्येक व्यक्ति, फर्म, बैंक व बीमा कंपनियों को मुद्रा के रूप में कुछ ना कुछ धन अवश्य जमा रखना पड़ता है। मौद्रिक जमायें शोधन क्षमता की गारंटी का कार्य करती है।  

6) पूँजी की तरलता में वृद्धि (Increase in the Liquidity of Capital)

केंज के अनुसार मुद्रा में सामान्य स्वीकृति का गुण होने के कारण यह पूंजी को तरल बनाए रखने का कार्य करती है। हम मकान, दुकान या भूमि इत्यादि के रूप में पूंजी को लेने से मना कर सकते हैं पर मुद्रा के रूप में पूंजी लेने से कोई मना नहीं करता।

मुद्रा के गत्यात्मक और अगत्यात्मक कार्य (Static and Dynamic Functions of Money)

प्रो. कॉलबर्न (Prof. Caulborn)  तथा पाल इनजिंग (Paul Einzing) ने मुद्रा के समस्त कार्यों को निम्न 2 वर्गों में बाँटा है-

1) अगत्यात्मक कार्य (Static Functions of Money)

मुद्रा के अगत्यात्मक कार्यों से अभिप्राय मुद्रा के स्थिर तथा निष्क्रिय कार्यों से हैं। यह कार्य अर्थव्यवस्था का संचालन करते हैं परंतु उसमें गति पैदा करने में कोई सहायता नहीं करते हैं। इन कार्यों में मुद्रा के प्राथमिक तथा गौण कार्य अर्थात i) विनिमय का माध्यम ii) मूल्य का माप iii) मूल्य का संचय iv) मूल्य के हस्तांतरण तथा v) स्थगित भुगतानों का मान आदि कार्य आते हैं।

2) गत्यात्मक कार्य (Dynamic Functions of Money)

मुद्रा के गत्यात्मक कार्यों से अभिप्राय उन कार्यों से हैं जो अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करते हैं।  गत्यात्मकता का अर्थ है- कीमत स्तर में स्थिरता लाना और रोजगार, आय, उत्पादन तथा व्यापार में वृद्धि करना है। मुद्रा के गत्यात्मक कार्य निम्न प्रकार से है- मुद्रा स्फीति और अव-स्फीति को दूर करना, घाटे की वित्त व्यवस्था संभव बनाना, साधनों का पूर्ण उपयोग संभव बनाना, आर्थिक विकास और कीमत स्थिरता के उद्देश्यों को प्राप्त करना।  

भारतीय मौद्रिक प्रणाली (Indian Monetary System)

भारतीय मौद्रिक प्रणाली को कागजी मुद्रा-मान या प्रबंधित मुद्रा मान (Managed Currency Standard) कहा जाता है। इसका अर्थ यह है कि कागजी करेंसी का भारत में प्रामाणिक मुद्रा के रूप में प्रयोग किया जाता है।

प्रमाणिक मुद्रा उस मुद्रा को कहते हैं जिसका सरकार या मुद्रित अधिकारी के आदेश द्वारा अर्थव्यवस्था में परिचालन होता है। इसी के प्रयोग द्वारा सरकार अपने दायित्व को पूरा करती हैं।

भारत में धातु के सिक्के तथा कागजी नोट दोनों ही साख मुद्रा है। अंतर केवल इतना ही है कि सिक्के छोटे मूल्य और कार्य नोट बड़े मूल्यांक वाले होते हैं।

विशेष नोट : भारत में सिक्के सीमित विधि ग्राह्य (Limited Legal Tender) और कागजी नोट असीमित विधि ग्राह्य (Unlimited Leagal Tender) हैं। इसका अर्थ यह है कि भुगतान करने के लिए सिक्कों का प्रयोग केवल एक सीमा तक ही किया जा सकता है। इसके विपरीत कागजी नोटों के रूप में भुगतान करने के लिए उनका प्रयोग असीमित मात्रा में किया जा सकता है।

भारत में नोट जारी करने की व्यवस्था- (Note issuing System in India)

भारत में नोट जारी करने की व्यवस्था को न्यूनतम सुरक्षित व्यवस्था (Minimum Reserve System) कहते हैं। समस्त जारी की गई करेंसी के पीछे न्यूनतम सोना एवं विदेशी मुद्रा सुरक्षित कोष में रखी जाती है।

1- सुरक्षित कोष में सोने की मात्रा न्यूनतम 115 करोड़ होती है तथा विदेशी प्रतिभूतियों का मूल्य ₹85 करोड़  होता है। अतः कुल सुरक्षित कोष का मूल्य केवल 200 करोड़ है। यह सुरक्षित कोष चलन में करेंसी के अनुपात में नहीं होता है।

2- लोगों के पास जितने भी मुद्रा होती है वह सब साख मुद्रा ही होती है। इसे जारी करने वाली संस्था (RBI)  इस मुद्रा को सोने-चांदी में परिवर्तित नहीं कर सकती। सुरक्षित कोष में सोना केवल कागजी मुद्रा का आधार है। यह कार्य कागजी नोटों को सोने में परिवर्तित करने वाला भंडार नहीं है।

3- भारतीय मुद्रा एक साख मुद्रा है

4- भारत की मुद्रा अपरिवर्तनीय (Inconvertible) है अर्थात जारी करने वाले संस्था इसे सोने-चांदी में परिवर्तित नहीं करेगी।

5- भारत में सभी कागजी नोट रिजर्व बैंक द्वारा जारी किए जाते हैं। परंतु ₹1 का नोट तथा सभी सिक्के भारत सरकार द्वारा जारी किए जाते हैं। इन्हें Indian Coinage Act के अधीन जारी किया जाता है।

मुद्रा की पूर्ति (Supply of Money)

मुद्रा की पूर्ति एक स्टॉक धारणा है। इसे अभिप्राय किसी एक समय बिंदु पर देश के लोगों के पास कुल मुद्रा के स्टॉक से है। मुद्रा की पूर्ति में मुद्रा के केवल उस भाग को शामिल किया जाता है जो लोगों के पास होता है। अर्थात मुद्रा की पूर्ति का अर्थ है जनता के पास मुद्रा का स्टॉक। मुद्रा की पूर्ति में न तो सरकार के पास मुद्रा के स्टॉक और ना ही देश के समस्त बैंकों के पास मुद्रा के स्टॉक को सम्मिलित किया जाता है। देश की सरकार तथा समस्त बैंकिंग व्यवस्था वास्तव में मुद्रा की पूर्ति करने वाले होते हैं। अतः इनके पास पड़ी अवितरित मुद्रा को लोगों के मुद्रा के स्टॉक  का एक भाग नहीं माना जाता।

मुद्रा की पूर्ति के माप (Measurement of Money Supply)

भारत में मुद्रा पूर्ति के चार माप होते हैं-

1- M1 माप

यह मुद्रा पूर्ति की सबसे संकुचित धारणा है।

       M1 = C + DD+ OD

      M1 = जनता के पास करेंसी + माँग जमायें + रिजर्व बैंक के पास अन्य जमा

(रिजर्व बैंक के पास अन्य जमाव में निम्न को शामिल नहीं किया जाता i) देश की सरकार की RBI के पास जमा ii) देश की बैंकिंग व्यवस्था की RBI के पास जमा है)

2- M2 माप

M2 माप M1 की तुलना में मुद्रा की पूर्ति की व्यापक धारणा है। M2 में M1 के सभी घटकों के अतिरिक्त इसमें डाकखानों की बचत को भी शामिल किया जाता है।

      अतः M2 = M1 + डाकखानों के बचत बैंक खातों में जमायें

अन्य शब्दों में M2 = जनता के पास करेंसी + माँग जमायें + रिजर्व बैंक के पास अन्य जमा + डाकखानों के बचत बैंक खातों में जमा

3- M3 माप

M1 की तुलना में यह भी मुद्रा की पूर्ति की व्यापक धारणा है। इसमें M1 के सभी घटकों के अतिरिक्त व्यापारिक बैंकों के पास सावधि जमाओं को भी शामिल किया जाता है।

      M3 = M1 + व्यापारिक बैंकों की निवल सावधि जमायें

यदि देश की मुद्रा पूर्ति को M3 द्वारा मापा जाता है तो इन्हें ही देश की कुल मौद्रिक साधन कहा जाता है।

4- M4 माप

यह मुद्रा पूर्ति की सबसे व्यापक धारणा होती है। इसमें M3 के सभी घटकों के अतिरिक्त डाकखानों की कुल जमाओं (राष्ट्रीय बचत सर्टिफिकेट NSC को छोड़कर) शामिल किया जाता है।

       M4 = M3 + डाकखानों की कुल जमायें (राष्ट्रीय बचत सर्टिफिकेट NSC को छोड़कर)

यदि किसी देश की मुद्रा को M1 अथवा M2 से मापा जाता है तो इसे संकुचित मुद्रा पूर्ति अवधारणा कहा जाता है।  यदि यह मापक M3 अथवा M4 है तो यह मुद्रा पूर्ति की विस्तृत धारणा होती है।

मुद्रा तथा उच्च शक्ति मुद्रा में अंतर (Difference between Money and High Powered Money)

विस्तृत रूप से मुद्रा तथा उच्च शक्ति मुद्रा में यह अंतर है कि मुद्रा में करेंसी तथा मांग जमाए शामिल होती हैं। जबकि उच्च शक्ति मुद्रा में करेंसी तथा बैंक के नगद को शामिल होते हैं।

मुद्रा = R + D

R = जनता के पास करेंसी (नोट + सिक्के)

D = मांग जमाए

उच्च शक्ति मुद्रा = R +  C

R = जनता के पास करेंसी (नोट + सिक्के)

C = बैंक के नगद कोष

मुद्रा की पूर्ति कौन करता है? (Who Supplies Money?)

आधुनिक युग में मुद्रा की पूर्ति सरकार, केंद्रीय बैंक तथा व्यापारिक बैंक करते हैं।

भारत में सरकार का वित्त मंत्रालय ₹1 का नोट जारी करता है तथा सभी सिक्के ढालता है। भारत में मुद्रा जारी करने का कार्य मुख्य रूप से केंद्रीय बैंक करता है। भारत का केंद्रीय बैंक, रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया न्यूनतम मुद्रा कोष प्रणाली के आधार पर करेंसी जारी करता है।

भारतीय रिजर्व बैंक को मुद्रा जारी करने के लिए 200 करोड़ का सोना तथा विदेशी प्रतिभूतियां कोष में रखनी पड़ती है। इनमें से 115 करोड़ का सोना होना आवश्यक है। व्यापारिक बैंक मांग जमा के आधार पर साख अथवा मुद्रा की पूर्ति का निर्माण करते हैं। जब व्यापारिक बैंक लोगों को साख प्रदान करते हैं तो इससे मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि होती है।

रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति के अनुसार ही व्यापारिक बैंकों को मुद्रा की पूर्ति का विस्तार अथवा संकुचन करना पड़ता है।

मुद्रा की आदर्श पूर्ति (Ideal Supply of Money)

मुद्रा की आदर्श पूर्ति की मुद्रा की वह मात्रा है जो अर्थव्यवस्था में वस्तुओं तथा सेवाओं के प्रवाह  के बाजार मूल्य के अनुरूप होती हैं। ताकि सभी वस्तुएं तथा सेवाएं खरीदी जा सके।

यदि देश में मुद्रा की पूर्ति, आदर्श पूर्ति से अधिक होती है तो पूर्ण रोजगार की स्थिति में कीमतें बढ़ने लगेंगे तथा मुद्रास्फीति (Inflation) की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी। इसके विपरीत यदि मुद्रा की पूर्ति, आदर्श पूर्ति से कम है तो कीमतें कम हो जाएंगी और मंदी की स्थिति उत्पन्न होने से मुद्रा अवस्फीति (Deflation) की स्थिति हो जाएगी और देश में बेरोजगारी बढ़ेगी।

अतः मुद्रा की पूर्ति केवल इतनी होनी चाहिए जिससे देश में उत्पादित सभी वस्तुओं की बिक्री हो सके तथा मुद्रास्फीति या अवस्फीति की स्थिति उत्पन्न हो।

देश के केंद्रीय बैंक की मौद्रिक नीति का एक मुख्य उद्देश्य मुद्रा की पूर्ति को उचित स्तर पर बनाए रखना होता है।

मुद्रा से संबंधित महत्वपूर्ण शब्दावली-

मुद्रा से संबंधित शब्दावली –

आदेश मुद्रा (Fiat Money)- आदेश मुद्रा उस मुद्रा को कहते हैं जो सरकार के आदेश के आधार पर जारी की जाती है तथा स्वीकार की जाती है। उदाहरण- हर देश की करेंसी

न्यास मुद्रा (Fiduciary Money)- यह वह मुद्रा है जिसका आधार प्राप्तकर्ता तथा अदाकर्ता के बीच परस्पर विश्वास का होता है। उदाहरण के लिए चेक

उच्च बलयुक्त मुद्रा (High Powered Money)- जनता के पास नगद राशि सिक्के वह पत्र मुद्रा तथा बैंक के पास नगद कोष के योग को उच्च बलयुक्त मुद्रा कहते हैं।

प्रमाणिक मुद्रा- प्रमाणिक मुद्रा उस मुद्रा को कहते हैं जिसका सरकार या मुद्रिका अधिकारी के आदेश द्वारा अर्थव्यवस्था में परिचालन होता है। इसी के प्रयोग द्वारा सरकार अपने दायित्वों को पूरा करती है उदाहरण दिया भारतीय मुद्रा रुपया।

विधिमान्य मुद्रा- किसी देश की विधि द्वारा मान्यता प्राप्त मुद्रा को विधि मान्य मुद्रा कहते हैं।  भारत में सिक्के सीमित विधि तथा कागजी नोट असीमित विधि मान्य मुद्रा है।  

प्रदिष्ट मुद्रा- प्रदिष्ट मुद्रा से अभिप्राय उस धातु अथवा वस्तु से है जिसे सरकार के आदेशानुसार मुद्रा के रूप में प्रयोग करना किया जाता है।

C-C Economy – जिस अर्थव्यवस्था में मुद्रा प्रणाली के स्थान पर वस्तु विनिमय प्रणाली का प्रयोग होता है इससे वस्तु वस्तु अर्थव्यवस्था अर्थात C-C Economy कहा जाता है।

पूर्ण कार्य मुद्रा/संपूर्ण मूर्तिमान मुद्रा (Full-Bodied Money)- यह मुद्रा जिसका मौद्रिक मूल्य = वस्तु मूल्य

साख मुद्रा (Credit Money)- यह मुद्रा जिसका मौद्रिक मूल्य उसके वस्तु मूल्य से अधिक होता है।

भारतीय मुद्रा प्रणाली (Indian Monetary System)-

यह पत्र मुद्रा मान पर आधारित होती है। तथा न्यूनतम सुरक्षित प्रणाली के आधार पर करेंसी जारी की जाती है। भारत की मुद्रा अपरिवर्तनशील मुद्रा है। अर्थात इसे मुद्रा के बदले में सोने या चांदी में परिवर्तित नहीं किया जा सकता।

NSC = National Saving Certificate (राष्ट्रीय बचत पत्र)

KVP = किसान विकास पत्र

RBI = Reserve Bank of India

 भारत में 50 पैसे और उससे कम मूल्य के सिक्के सीमित विधि ग्राह्य मुद्रा है जबकि एक रुपए से बड़े सिक्के तथा समस्त कागजी मुद्रा असीमित विधि ग्राह्य मुद्रा है।

 भारत में ₹1 का नोट व सभी सिक्के वित्त मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा तथा बाकी समस्त कागजी मुद्रा रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया द्वारा जारी की जाती है।

यदि उपरोक्त के संबंध में आपको कोई शंका या सुझाव है तो कृपया हमें कमेन्ट कीजिए या runisir@gmail.com पर मेल कीजिए।   

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